Sunday, October 30, 2011

कैंसर रिसर्च फंडिंग और सपोर्ट का फंडाः व्यंग्य की नज़र से

अमरीका के नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट का कैंसर अनुसंधान पर सालाना बजट कोई 5 अरब डॉलर का है। इसके अलावा सूज़न के. कोमेन फॉर क्योर नाम की संस्था हर साल अनेक लोगों और एजेंसियों को लाखों डॉलर देती है ताकि स्तन कैंसर का इलाज ढ़ूंढा जा सके। बीसियों साल से दुनिया भर की लैबोरेटरीज़ में ये रिसर्च चल रहे हैं, लेकिन अभी तक कैंसर के इलाज के नाम पर 99 फीसदी वही इलाज हैं जो 20 साल पहले थे, थोड़े-बहुत फाइन-ट्यूनिंग के साथ। मरीज को इस रिसर्च का कुछ भी हिस्सा नहीं मिला है। इसके पीछे क्या पॉलिटिक्स हैं, भ्रष्टाचार है? न उसका इलाज का खर्च कम हुआ, न कैंसर से बचाव और न ही इलाज की सफलता का भरोसा।

इन कार्टूनों से कुछ समझ सकें तो बताएं।



Wednesday, October 19, 2011

स्टीव जॉब्स- दुनिया को कैंसर से ऐसा नुकसान शायद न होता अगर...

ऐप्पल डॉट कॉम के मुखपृष्ठ पर सिर्फ उस कंपनी के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स का चित्र है। उनका इस महीने के सुरू में निधन हो गया। मुखपृष्ठ का चित्र ऐसा है-

इस व्यक्ति को हर अखबार पढ़ने वाला, टीवी देखने वाला व्यक्ति पहचनता है, भले ही उसके पास आईफोन, आईपॉड, आईमैक, आईपैड,... या कोई और 'आई' हो या नहीं। इतनी जल्दी, अपने सबसे ज्यादा प्रोडक्टिव समय में इस व्यक्ति का जाना न्यू मीडिया की दुनिया को कई औजारों से वंचित कर देगा/रहा है, यह तय है। हालांकि और बहुत से लोग एपल से सस्ते, उसी तरह के उत्पाद बना रहे हैं, लेकिन आई में जो बात है (कीमत सहित, जो कि और भी उत्सुकता, ललक पैदा करती है, मेरे जैसे लोगों के मन में, जो उन्हें नहीं खरीद पाते।) वह किसी और में कहां। खैर।

फिलहाल तकनीक की नहीं, स्टीव का जीवन लेने वाली बीमारी कैंसर की बात हो रही है।

ठीक 8 साल पहले, अक्टूबर 2003 में स्टाव जॉब्स को एक खास तरह के पैंक्रियास का कैंसर होने का पता चला, जो कि सर्जरी से ठीक हो सकता था। लेकिन स्टीव ने अपने शाकाहार और प्राकृतिक चिकित्सा पर ज्यादा भरोसा किया और खान-पान के जरिए ही अपने कैंसर का इलाज करने की कोशिश करने लगे।

इस प्राकृतिक खान-पान चिकित्सा में उन्होंने नौ सबसे महत्वपूर्ण, कीमती शुरुआती महीने बर्बाद कर दिए जबकि व्यवस्थित इलाज का बेहतरीन परिणाम उन्हें मिल सकता था। जब आखिर उन्होंने अपना इलाज एलोपैथी पद्यति से कराने का फैसला किया, तब तक उनका कैंसर शरीर में फैल चुका था। जुलाई 2004 में उन्होंने सर्जरी भी करा ही ली। लेकिन बीच के इन नौ महीनों में सर्जरी या कहें, उचित इलाज से भागने का नतीजा यह रहा कि उनकी जिंदगी जरा छोटी हो गई।

कोई गारंटी तो नहीं थी कि वे कैंसर का इलाज कराकर पूरी तरह स्वस्थ हो जाते या उसके साथ ही दसियों साल और जीवित रहते, लेकिन निश्चित रूप से उनका सर्वाइवल लंबा और बेहतर होता। उनकी लंबी जिंदगी पूरी दुनिया के लिए नेमत होती। और अपनी जिंदगी को कौन ज़ाया करना चाहता है? कौन चाहता है कि वह ऐसे बेवक्त मरे?

अब हम स्टीव को सिर्फ अलविदा ही कह सकते हैं।

Sunday, October 16, 2011

कैंसर के इलाज में शरीर के नफे-नुकसान का हिसाब

स्तन कैंसर के इलाज और इसे रोकने की दवा टेमॉक्सिफेन के नुकसान भी हैं

मैंने अपनी किताब ‘इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी’ में अंतिम अध्याय में लिखा है कि मेरे सफल इलाज में, तीसरे स्टेज के कैंसर के बावजूद मेरा जीवन बच पाया तो इसमें ‘एक छोटी सी सफेद गोली टेमॉक्सिन का भी हाथ है’। अपने साइड इफेक्ट्स, जिसमें बच्चेदानी के आवरण का कैंसर तक शामिल है, के बावजूद यह स्तन कैंसर के मरीजों के लिए निश्चिक रूप से जीवन रक्षक है।



स्तन कैंसर का एक बड़ा कारण ईस्ट्रोजन हार्मोन की अधिकता भी है, जिस पर लगाम लगाने के लिए इलाज के बाद पांच साल तक टेमॉक्सिफेन नाम की गोली खाने की सलाह दी जाती है। यह दवा हॉर्मोन रिसेप्टर टेस्ट सकारात्मक आने पर और भी ज्यादा जरूरी समझी जाती है।

हाल ही में कई कैंसर अनुसंधान पत्रिकाओं में एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें बताया गया है कि टेमॉक्सिफेन से बड़ी उम्र की महिलाओं में मधुमेह होने का खतरा बढ़ जाता है। 65 साल से बड़ी 14 हजार स्तन कैंसर विजेताओँ पर अनुसंधान के बाद पाया गया कि उनमें से 10 फीसदी को 5 साल के टेमॉक्सिफेन इलाज के दौरान मधुमेह हो गया। यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के
वीमेंस मेडीकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में हुए इस रिसर्च के मुताबिक टेमॉक्सिफेन लेने से बड़ी उम्र की महिलाओं में मधुमेह का खतरा बढ़ गया।

लेकिन, रिसर्चर्स ने यह भी कहा है कि इसमें ‘खतरे’ की कोई बात नहीं है। क्योंकि टेमॉक्सिफेन का जितना फायदा मरीजों को मिलता है, उसके मुकाबले मधुमेह होने की संभावना का रिस्क बहुत ही छोटा है। कैंसर जानलेवा हो सकता है, पर मधुमेह के साथ वह बात नहीं, अगर उसे काबू में ऱखा जाए। दरअसल टेमॉक्सिफेन ईस्ट्रोजन नाम के हार्मोन को शरीर में बनने से रोकता है। यह हार्मोन महिलाओं के लिए जरूरी है, पर इसकी अधिकता या अनियमितता कई बार स्तन कैंसर को बढ़ावा भी देती है। ऐसे में स्तन कैंसर के मरीजों और कई बार, कैंसर होने की संभावना वाली महिलाओं को भी प्रिवेंशन के तौर पर टेमॉक्सिफेन दिया जाता है। ईस्ट्रोजन का एक काम शरीर में इंसुलिन हार्मोन को बढ़ाना भी है, जो कि रक्त में चीनी की मात्रा पर काबू रखता है। ऐसे में ईस्ट्रोजन की कमी का सीधा असर इंसुलिन पर भी पड़ता है।

टेमॉक्सिफेन के कई और साइड इफेक्ट पहले से ज्ञात है, जैसे खून का थक्का बनना, बच्चेदानी के कैंसर की संभावना, मोतियाबिंद और स्ट्रोक। लेकिन इनके बावजूद यह दवा दसियों वर्षों से दी जा रही है और कारगर भी रही है।

इस रिसर्च में दो और बातें सामने आईं। पहली- टेमॉक्सिफेन का इस्तेमाल बंद करने के बाद इसका असर भी खत्म हो जाता है, यानी इसकी वजह से मधुमेह का रिस्क भी खत्म हो जाता है। दूसरे, एक अन्य ईस्ट्रोजन इनहिबिटर एरोमाटेज़, जो कि अरिमिडेक्स और एरोमासिन नामों से हिंदुस्तान में मिलता है, का कोई ऐसा असर नहीं देखा गया जो मधुमेह से संबंधित हो। कारण यह है कि इसका काम करने का रासायनिक तरीका अलग है।

जो भी हो, साफ बात यह है कि कैंसर के इलाज की हर पद्यति में, हर दवा में शरीर को लगातार बड़े नुकसान होने का खतरा रहता ही है, और ये नुकसान दिखाई भी पड़ते रहते हैं। लेकिन.... लेकिन यह बीमारी इतनी मारक और तेजी से फैलने वाली है कि इसे रोकने के लिए छोटे-मोटे खतरों को नजर-अंदाज कर हर संभव इलाज पहले कराना चाहिए। जीवन बचे, वह सबसे जरूरी है।
शरीर होगा तो उसकी रिपेयर-मेंटेनेन्स होती रहेगी, उसका वक्त मिलेगा। लेकिन अगर कैंसर को न रोक गया तो यह जीवन को ही खत्म कर देगा।

आप भी हैं अपने हक में एक बड़े अभियान के हिस्सेदार

पिंक हो या ब्ल्यू, अपने को जानना, जागरूक होना सबसे महत्वपूर्ण है

अक्तूबर स्तन कैंसर माह के तौर पर दुनिया भर में मनाया जाता है, ताकि इसके बारे में जागरूकता फैलाई जा सके। अमरीका में महिलाओं के मरने का एक बड़ा कारण यह है। हमारा देश भी अब हर तरह के कैंसर जिसमें स्तन कैंसर भी जोर-शोर से शामिल है, के मामले में पीछे नहीं है, और इसका दायरा बढ़ता ही जा रहा है। जागरूकता हमारे यहां भी बेहद जरूरी है।

स्तन कैंसर के बारे में जागरूकता का पहचान का रंग गुलाबी है। इस पूरे महीने में कभी आप भी गुलाबी पहनें और अपने को इस बीमारी के बारे में जागरूक करें।

अपने शरीर को जानने-समझने और उसमें आए किसी भी बदलाव पर नजर रखने का एक अभियान चलाएं, जो कि कैंसर को जल्द पकड़ पाने और उसका इलाज सहज बनाने का सबसे कारगर और आसान तरीका है। सिर्फ एक दिन या एक महीने नहीं, जीवन भर। इसमें 'खर्च' होगा, सिर्फ आपका थोड़ा सा समय महीने- पंद्रह दिन में एक बार।

जरूर शामिल हों कैंसर जागरूकता, अपने प्रति जागरूकता के इस अभियान में। यह छोटा लगने वाला निजी प्रयास एक बड़े अभियान का हिस्सा है- याद रखिए।
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